दोस्तों ,
हमारा समाज सच्चाई से ज्यादा समझ से चलता है। समझ जो हमें मिलती है अपने अनुभव से ,परिवार के बुजुर्गो से, पढाई से। हालांकि समझ के कुछ और उद्गम भी हो सकते है जो समय समय पर हमारी समझ को प्रभावित करते है। यह समझ हमारे अवचेतन दिमाग (सब कान्सियस माइंड ) पर दर्ज हो जाती है। यह समझ व्यक्तित्व निर्माण और हमारे व्यहार को भी गहराई से प्रभावित करती है।इस समझ के साथ बार बार किया हुआ व्यहार हमारी आदत बन जाता है और वह स्वचलित काम करता है। किसी खास हालात में वह व्यहार अपने आप हो जाता है जिसका कारण है अवचेतन मन में दर्ज सूचना। आमतौर पर आप को तो वह कारण पता भी नहीं चलता है जिसकी वजह से अपने किसी खास मौके पर जो व्यहार किया है।
सिद्धांत रूप में यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है की समझ और सच्चाई में फर्क हो सकता है। समझ के बारे में खोज करने पर सच्चाई का पता चल सकता है। लेकिन इसके लिए आवश्यक है की पहले इसकी आवश्यकता को समझा जाये फिर उसके लिए प्रयत्न करने के लिए साधन जुटाये ,खोज के परिणाम को दूसरे लोगो द्वारा की खोज अथवा अनुभव से तुलना करे और ज्यादा स्वीकार्य परिणाम को फैलाये या प्रचार करे। इतना सब प्रयत्न करने की कोशिश करना सामाजिक वैज्ञानिको से ही अपेक्षित हो सकता है। किन्तु इनकी समस्या है की इसका व्यवसाईक लाभ सुनिश्चित करना मुश्किल है और इसके बिना इन विषयों पर खोज।
सच्चाई से दूर इस तरह की समझ क्या कर सकती है यह बात एक उदहारण से स्पष्ट करने पर समझ आएगी। एक प्रसिद्ध कहावत है "माँ भी अपने बच्चे को बिना रोये दूध नहीं पिलाती" . इस साधारण बात ने अवचेतन मन में यह समझ पैदा की आपको अपने अधिकार प्राप्त करने के लिए विरोध प्रगट करना, शोर मचाना आवश्यक है क्योकि यदि माँ अपने बच्चे को उसका अधिकार बिना माँगे नहीं देती तो दूसरा और कौन है जो बिना शोर मचाये आपका अधिकार आपको देगा। इस समझ ने दो काम किये एक तो समाज में आपस में अविश्वास पैदा किया दूसरा अपने अधिकार को प्राप्त करने में धैर्य रखने की आवश्यकता है और यह अपने आप होने वाला है इस विश्वास को खत्म कर दिया। मैंने जब १०-१२ माताओं का इस विषय पर सर्वेक्षण किया तो सभी ने इस समझ को गलत बताया । हालाँकि इस समझ का समाज पर क्या असर हो सकता है इस बारे में उन्होंने कभी नहीं सोचा क्योंकि इसकी आवश्यकता ही महसूस नहीं हुई। अन्यथा इस समझ को ठीक करने के लिए किसी अतरिक्त प्रयास की आवश्यकता नहीं थी क्योकिँ माँ हर परिवार में होती है और यह उसका अपना अनुभव है। जिसके पुष्टिकरण की भी आवश्यकता नहीं है।
इसी तरह की कई और मान्यताएँ हमारे समाज में है जिनके बारे में खोज कर समझ को सच्चाई के साथ पुष्टि करने की आवश्यकता है खास तौर वह मान्यताएं अथवा समझ जिनसे समाज को जाने अन्जाने नुकसान हो रहा है।
अजय सिंह